बुधवार, 4 दिसंबर 2019



संघर्ष शक्ति के गायक:कवि भवानी प्रसाद मिश्र
डॉ० कमल कुमार
तारों से भरा आसमान ऊपर,
हृदय से हरा आदमी भू पर।
होता रहता हूँ रोमांचित
वह देखकर यह छूकर।
बीसवीं सदी की आधुनिक हिन्दी कविता में अपने अलग भाषा दृष्टि और नये काव्य प्रतीकों के  साथ-साथ स्वदेशी चेतना और प्रतिरोध के स्वर के साथ अपनी अलग पहचान बनाते हुए भवानी प्रसाद मिश्र का उदय होता है। मिश्र जी की काव्य रचना का प्रस्थान बिन्दु 1930 ई. के आसपास से शुरू होता है, लेकिन व्यवस्थित रूप से उनकी रचनाएँ पहली बार अज्ञेय जी द्वारा संपादित दूसरा सप्तक(1951 ई.) के माध्यम से प्रकाश में आती है। 1953 में उनका पहला संग्रह–गीतफरोश प्रकाशित होता है। भवानी प्रसाद मिश्र की रचना यात्रा भारतीय समाज और परिस्थितियों के कई दौर से गुजरती है। प्रारंभिक दौर में जहाँ एक ओर राष्ट्रीय चेतना, स्वतंत्रता का संघर्ष चल रहा था, जो गाँधी जी की अगुवाई में हिंसा के बरक्स अहिंसा, नफरत की जगह प्यार और नैतिक आदर्शों को आंदोलन का केन्द्रीय तत्व बनाने का आग्रह था,वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिए तत्कालीन जरूरतों को नजरअंदाज करके झूठ, हिंसा,नफरत के हर कृत्य को करने के लिए तत्पर थे। भवानी भाई के भीतर का रचनाकार इन विपरीत स्थितियों से न केवन क्षुब्ध होता है बल्कि रचना और व्यवहारिक दोनों धरातलों पर लड़ता भी है।
स्वतंत्रता के बाद की राजनैतिक और सामाजिक स्थिति दिन पर दिन और जटिल होती जा रही थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय लिए गये सभी संकल्प टूट रहे थे। इस विपरीत परिस्थिति के बीच कवि भवानी प्रसाद अपनी विचारधारा को यूँ कहते हैं- कि टूटना निरखनाकुछ नहीं है/ झमेले में पड़ों/जीवन संघर्ष है!/लड़ो!!” और यही कह कर चुप भी नहीं हो रहे वहाँ इस संघर्ष से गुजरने के लिए एक उम्मीद भी पैदा करते हैं। वे अपने भीतर के छिपे पहाड़ और नदी को खोलने की बात करते हैं- होने को/ हमारे भीतर भी है/ निरन्तरता/ मगर हम उसे/ बेशक नहीं जानते/ अचल है कुछ / हमारे भीतर भी/ पहाड़ की तरह/तरल है कुछ/ नदी की तरह।समकालीन कविता के परिदृश्य में भवानी भाईअकेले ऐसे कवि हैं जो सहज भाषा में, सच्ची सृजन क्षमता लिए, व्यापक अनुभूतियों को जनसामान्य तक पहुँचाया है।
अपनी कविता में लय हो गये व्यक्तित्व वाले इस कवि की विशेषता यह है कि वह किसी बौद्धिक तर्क के सहारे कविता नहीं रचते, बल्कि कविता ही उनको रचती है। उन्होंने इस तथ्य को स्वीकार करते हुए स्वयं कहते हैं-मैं जानता हूँ कि कैसे मेरी हर साँस मेरे समूचे जीवन का अंश है, आकर और चली जाकर वह मुझे कुछ ऐसा कुछ दे जाती है जिसके कारण जीवन चलता जा रहा है, वैसे ही मेरी हर कविता मेरे जीवन का अंश है। कविता मेरे जीवन का विस्तार या संकोच नहीं है। दैन्य या पलायन नहीं है। वह मेरा अस्तित्व है।इस वक्तव्य के आलोक में आप भवानी प्रसाद मिश्र के समूचे रचनाकर्म को समझ सकते हैं। यह कवि न तो किसी काव्य आंदोलन से जुड़े न ही किसी विचारधारा से विशेष प्रभावित होते हैं। उनके काव्य में सरलता और निष्कपटता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। वे सहज जीवनानुभव के ऐसे समर्थ कवि हैं, जो देखने में जितने ही साधारण लगते हैं उतने ही असाधारण हैं। उनका काव्य अपनी जिजीविषा, सामाजिकता, उदात्तता एवं युगबोध के कारण जहाँ नेताओं, शिक्षकों, समाज सुधारकों एवं अन्य मानवता प्रेमियों के बीच चर्चा का विषय रहा है, वहीं अपनी प्रखर अनुभूति, बेलाग ईमानदारी, अभिव्यक्ति की सहजता के कारण सामान्य जन का भी मन बांधने में सफल रहे हैं। इसका सबसे प्रमुख कारण है कि भवानी प्रसाद किसी वाद के कवि नहीं हैं, वे जीवन के कवि हैं।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं इनके जीवन अनुभवों का निष्कर्ष भी है, इस कविता में रस्सी के रेशे में बंट जाने के खतरों के बारे में बताते हुए कहते हैं-
बुनी हुई रस्सी को घुमाएँ उल्टा
तो वह खुल जाती है
और अलग-अलग देखे जा सकते हैं
उसके रेशे।
मगर कविता को कोई
खोले ऐसा उल्टा
तो साफ नहीं होंगे हमारे अनुभव
कविता को
बिखरा कर देखने से
सिवा रेशों के क्या दिखता है,
लिखने वाला तो
हर बिखरे अनुभव को
समेटकर लिखता है।                                (बुनी हुई रस्सी)
भावनाओं की मार्मिकता और अभिव्यक्ति के निखार में यह कविता अपनी अलग छवि के साथ प्रस्तुत हो रही है।
भवानी प्रसाद आज की कविता को काल सापेक्ष युग सत्यों की अभिव्यक्ति माध्यम के रूप में देखना चाहते हैं। वे मानते हैं पहले से भिन्न आज कविता की जिम्मेदारी और भी बढ़ गयी है। उनकी कविताओं में यह विचार स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। कविता की रचना के लिए मिश्र जी ने अनुभव को आधार माना है, कवि अपने आस-पास बिखरे अनुभवों को समेटता है। कविता का एक-एक शब्द इन्हीं अनुभवों से निकल कर आता है। इसीलिए अपनी एक कविता में लिखते हैं-
इसीलिए नहीं लिख पाता मैं
छोटी-छोटी बातें
जितना छू जाता है
उतना कह देता हूँ।
(मुझमें और उनमें – बुनी हुई रस्सी)
भवानी प्रसाद मिश्र कविता के लिए अनुभवों को वरीयता देते हैं जो कवि को लिखने के लिए बाध्य करें। अनुभवों के बाद बात आती है अभिव्यक्ति की। इस अभिव्यक्ति की भाषा सहज हो, स्वाभाविक पर इतनी सशक्त और गंभीर कि कवि भी उसका माध्यम बन जाय और अपने को समर्पित कर दे। उनकी इस कविता से उनकी विचारधारा को समझे-
कलम अपनी साध
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहने बने सादे ढंग से तो बह।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
(कवि- गीतफरोश)
उनकी इस सहजता को देखकर कवि नागार्जुन न कहा था- यहाँ न तो शब्द चिमटे से उठा-उठाकर जड़े गये है और न ही अभिव्यक्ति का ढंग ही आयास साध्य है। स्वभाविक बोलचाल की भाषा अपनी लयात्मकता में स्वयं छंदोबद्ध हो उठी है। यह सब उनकी शब्द साधना का ही परिणाम है, वे शब्दों की क्षमता एवं संभावनाओं से वाकिफ थे। इसीलिए उन्होंने एक जगह लिखा भी है- मैं एक शब्द लेता हूँ शब्द पर शब्द जमने लगते हैं और प्रवाह अर्थ का, नये अर्थ का और नये-नये अर्थों का होने लगता है। कविता लिखते समय भवानी भाईस्थूल व्यक्ति न रहकर, केवल सूक्ष्म अनुभव रह जाते हैं। यह एक ऐसा क्षण होता है जिसमें कवि अपने समूचे अस्तित्व को खो देता है। भवानी भाईके सामने दो तरह की चुनौतियाँ थी, एक किनारे पर जीवन यथार्थ की भयानक चुनौतियाँ थी और एक सजग नागरिक का दायित्वबोध । दूसरे पर कविता की पुकार। भवानी प्रसाद बड़ी खूबसूरती से दोनों राग गाते थे।
भवानी प्रसाद मिश्र जी का जीवन दर्शन है कि जिंदगी एक ठोस चीज है। छोटी-छोटी बातों में ही जीवन के तत्व समाहित है। कवि की जागरूकता और संवेदनशीलता इस बात में है कि वह परिवेश को समझे, समसामयिकता के प्रति सतर्कता बरतें, सामान्य व्यक्ति के दुख-सुख में डूबे और जीवन-मूल्यों को उजागर करें। वे कल्पना के स्वप्न से कोसों दूर है और जीवन के संघर्षों से ही निकलकर आने वाले अऩुभवों को प्राथमिकता देते हैं। जन सामान्य के प्रति असीम अनुराग, प्रेम, निष्ठा को लेकर आगे बढ़े हैं। इतिहास उसी कवि को याद रखता है, जो बीहड़ बंजरों में अपने अर्थों के गुलाब की महक दे, भीतर और बाहर को एक रूप दे-
बड़ा हिसाबी है काल
वह तभी लिखेगा
अपनी बही के किसी
कोने में तुम्हें
जब तुम
भीतर और बाहर हो
कर लोगे परस्पर एक।                                                                                                                 (व्यक्तिगत)
मिश्रजी बाहर और भीतर समग्रत: भारतीय हैं। अपने देश के प्रति अगाध प्रेम उनकी अनेक कविताओं में मिलता है। इनकी कविताओं में अद्वैत दर्शन, गाँधीवाद के साथ सरल कविता, सरल मानव, सरल जीवन, सरल मूल्यों का अंकन अनेक जगह विद्यमान है। भवानी प्रसाद समन्वयवादी दृष्टि के कवि हैं और इनकी कविता जीवन आस्था की।  उनकी इसी गुणों को देखकर प्रसिद्ध कवि आलोचक प्रभाकर माचवे ने एक जगह लिखा है-भवानी प्रसाद मिश्र का सबसे बड़ा गुण है उनकी प्रसन्न, ओजवती बोलचाल के मुहावरें से पंडित, सलीस, प्रसाद गुणमयी, सहसोत्स्फूर्त, सादा भाषा। कविता की ऐसी भाषा उर्दू के कवियों की भी शायद ही रही हो-पर हिन्दी में तो उनकी अपनी, अकेले, व्यक्तित्व की छाप वाली है।
            समकालीन कवियों में भाषा के प्रति सर्वाधिक सचेत दिखाई देते हैं। इनकी कविताओं के शिल्प नवीन और सार्थक हैं। कविता के शिल्प में आडम्बर और कृत्रिमता से छुटकारा पाने मे उनकी कविताएँ सफल रही हैं। यही कारण है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता भाषा में लिखी गयी कविता नहीं है वह बोलचाल की बोली में लिखी गयी है। वे अपनी कविता को बोलना ही मानते थे। वे कविता में शब्द संयम और शब्दों के सही प्रयोग पर जोर देते हैं-
शब्दों का सही उपयोग
योग है
और कल्याणकारी है
योग की तरह
उसका मनमाना उपयोग
भोग है
और विनाशकारी है भोग की तरह!
(भवानी भाई- सं.प्रेमशंकर रघुवंशी, भूमिका से पृ.20)
भाषा के साथ-साथ बिम्बों और प्रतीकों के चयन में भी कवि हृदय नवीनता का प्रयोग करता है। सादगी में ताजगी का एहसास और समाज के यथार्थ और जीवनबोध को अपनी कविताओं में बारीकी के साथ प्रस्तुत किया है। इस बिम्ब को देखिए-
उस दिन
आँखे मिलते ही
आसमान नीला हो गया था
और धरती फूलवती।
भवानी प्रसाद मिश्र ने अपने काव्य के ऊपर कालिदास, वर्ड्सवर्थ, शैली, बाऊनिंग और रवीन्द्रनाथ टैगोर का प्रभाव स्वीकार किया है। ये सभी कवि सौंदर्य चेतना के कवि हैं। इन सबके चेतना का प्रेम और प्रकृति के प्रभाव का सही सामंजस्य मिश्र जी में दिखायी देता है। इनकी प्रेम संबंधी कविताएं शालीनता के साथ अपनी अभिव्यक्ति को प्रकट करती हैं।
तुमसे मिलकर
ऐसा लगा जैसे
कोई पुरानी और प्रिय किताब
एकाएक फिर हाथ लग गयी
या फिर पहुँच गया हूँ मैं
किसी पुराने ग्रंथागार में
समय की खुशबू
प्राणों में भर गयी।
मिश्र जी का काव्य संसार कई वादों और काल का साक्षी रहा है लेकिन वे विभिन्न वादों में उसी तरह रहे हैं, जैसे एक किराएदार मकान बदलता है। न कोई अधिकार, न कोई आग्रह, न मोह, न पश्चाताप। युग और परिवेश के प्रति सचेतन होने के लिए वे हर वाद संवाद करते हैं, पर हैं वे जीवन राग के विरागी कवि। विजय बहादुर सिंह ने लिखा है- हिन्दी भाषा और उसकी प्रकृति को अपनी कविता में संजोता और नए ढ़ंग से रचता यह कवि न केवल घर, ऑफिस या बाजार बल्कि समूची परम्परा में रची-पची और बसी अन्तरध्वनियों को जिस तरकीब से जुटाता और उन्हें नई अनुगूँजों से भरता है, वे अनुगूँजें सिर्फ कामकाजी आबादी की अनुगूँजे नहीं हैं, उस समूची आबादी की भी है जिसमें सूरज, चांद, आकाश-हवा, नदी- पहाड़, पेड़-पौधे औऱ तमाम चर-अचर जीव –जगत आता है। कविता में मनुष्य और लोक प्रकृति और लोक-जीवन की यह संयुक्त भागीदारी का जुगलबंदी का दृश्य रचते हैं।
सूरज डूबा तारे निकले,
एक के बदले सौ सहारे निकले।
जिस तरफ उठाई आँखे हमने,
कहीं कोई गैर नहीं
सब हमारे निकले।
यह सच है कि हर दिन व्यक्ति बिखरता है, टूटता है, कभी शरीर से, कभी मन से पर इस टूटने-बिखरने से क्या होता है, जीने की लालसा व्यक्ति में सर्वाधिक प्रबल है। इसी संघर्ष के शक्ति के गायक हैं भवानी भाई। मिश्र जी करुण प्रसंगों को बड़े ही मार्मिक तथ्यों के साथ उनकी पूरी करुणा और संवेदना, ग्रामीण जीवन की कटु यथार्थ और विपन्नता के साथ लोक जीवन का पूरा बिम्ब पेश करते हैं। कविता गाँव (गीतफरोश) में शोषण का मार्मिक चित्र इसमें मूर्तिमान हो रहा है-
गाँव, इसमें झोपड़ी है, घर नहीं है,
झोपड़ी के फटकियाँ हैं, दर नहीं है;
धूल उड़ती है, धुएँ से दम लुटा है,
मानवों के हाथ से मानव लुटा है।
रो रहे हैं शिशु कि माँ चक्की लिये है,
पेट पापी के लिए पक्की किये है
फट रही छाती।
(गाँव, दिसम्बर-1937 में प्रकाशित)
कवि की व्यंजना समाज के पूँजीपतियों, सामंतों और शासकों द्वारा कितने अलक्षित और अज्ञात जीवन कैसे नष्ट हो रहे हैं। जीवन की भयावह विषमताओं के चित्र हमें समाज की कटु सच्चाईयों से रू-ब-रू भी कराती है। समाज में आधुनिकता की अंधी दौड़ और कृत्रिम जीवन की दिखावट, फैशन और आधुनिकता के नाम पर सुरा-सुंदरी में डूबा समाज, आतंकवाद, धार्मिक राजनीति और भ्रष्टाचार के गर्त में आकंठ डूबा यह देश कवि भवानी प्रसाद मिश्र की प्रखर दृष्टि से ओझल नहीं हुआ है। यह है हमारा आज का परिवेश-
आज हवाएँ चल रही हैं
जैसे किसी से जल रही हैं
पत्ते उसे छूकर
खुश नहीं लगते
यह कैसा सवेरा हो रहा है आज
कि पंछी
किरन और हवा के जगाए नहीं जगते।
(बुनी हुईरस्सी)
समय के अनुरूप ढलना ठीक है किन्तु अपने को समय के हाथों बेच देना ठीक नहीं, वक्त न अच्छा है न बुरा, न कोमल न कठोर। उसे अपनी जीवन दृष्टि से अपने अनुकूल बदला जा सकता है।
कि टूटना निरखना कुछ नहीं है
झमेले में पड़ो
जीवन संघर्ष है!
लड़ो !!
इस कवि की कविताओं में प्रकृति का भी चित्रण मिलता है। प्रकृति से भी इन्हें बेहद प्यार था। नर्मदा की लहरों और सतपुड़ा के जंगलों को वे कभी नहीं भूले। प्रकृति की हर वस्तु उनकी आत्मीय है। प्रकृति उन्हें वैचारिक भूमि प्रदान करती है। उनका प्राकृतिक दृश्यों का चित्रांकन रमणीक अनुभूतिपरक और सूक्ष्म है। प्रकृति की आशावादी चेतना उन्हें प्रेरणा, नई आकांक्षा , नये सपने और नये संगीत को जन्म देती है। यह चित्रांकन , रमणीक अनुभूतिपरक और सूक्ष्म है। प्रकृति की अनंत राशि, मधुमास की यौवन बेला, चाँद की किरणें, सरसों के खेत जैसे प्रकृति का हर स्पन्दन कवि की चेतना बन गया है। वे मनुष्य को जगाने वाले गायक हैं। वे उसे बेखबर नहीं रहने देना चाहते हैं। प्रकृति की सारी शक्तियाँ उसमें संचित कर देना चाहते हैं-
भई, सूरज
जरा इस आदमी को जगाओ
भई, पवन
जरा इस आदमी को जगाओ
यह आदमी जो सोया पड़ा है
जो सच से बेखबर
सपनों में सोया पड़ा है
भई, पंछी
इसके कानों पर चिल्लाओ।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कवि भवानी प्रसाद मिश्र का काव्य- संसार बहुत व्यापक और गहन है। जीवन के प्रत्येक फलक को उन्होंने अपनी काव्य वस्तु के लिए गृहीत किया है। इसीलिए उन्हें किसी विशेष का कवि न कहकर सर्वविज्ञ कवि कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। उनके काव्य में इन सब फलकों की अभिव्यक्ति उनके प्रगाढ़ चिंतन की देन है। जो जिया है, सो उन्होंने लिखा है, जिस तरह सोचा है वैसे लिखा है। वे स्थितियों को भाव और विचार के स्तर पर खूब जीकर लिखने वाले कवि है। यही कारण है कि उनकी काव्य चेतना में जीवन राग का स्वर गहन और व्यापक है। मिश्र जी ने आधुनिक हिन्दी कविता को नया प्रवाह और नई दिशा प्रदान की। उन्होंने सामान्य जन के विषम संघर्ष के भीतर से कवि को पहचाना और रुमानियत की जमीन से हटकर लोक जीवन के निकट उस कविता को ला खड़ा किया। वे पराजित युग के कवि होकर आदिम सुगंधों के गायक ऐसे कालजयी कवि बन गए।
मेरा और तुम्हारा
सारा फर्क
इतने में है
कि तुम लिखते हो
मैं बोलता हूँ
और कितना फर्क हो जाता इससे
तुम ढाँकते हो मैं खोलता हूँ।

संदर्भ ग्रंथ-
1.प्रतिनिधि कविताएँ- भवानी प्रसाद मिश्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला सं.-2014
2. समकालीन सृजन- भवानी प्रसाद मिश्र के आयाम, संपादक- लक्ष्मण केडिया, अंक-16,1995
3.भवानी भाई-सं. प्रेमशंकर रघुवंशी-प्रतिश्रुति प्रकाशन, कोलकाता, प्रथम सं.-2014
4.कालजयी कवि – भवानी प्रसाद मिश्र-डॉ हरिमोहन, वाणी प्रकाशन , दिल्ली, प्रथम सं. -1986
5.पदार्पण: भवानी प्रसाद मिश्र विशेषांक – सं. डॉ इन्दु सिंह, अंक -7, दिसम्बर-2013
6. बुनी हुई रस्सी- भवानी प्रसाद मिश्र-सरला प्रकाशन,दिल्ली 2008
7.भवानी प्रसाद मिश्र और उनका काव्य-संसार- डॉ.अनुपम मिश्र,विश्वविद्यालय प्रकाशन,वाराणसी 2003



डॉ.कमल कुमार
सहायक प्रोफेसर
हिंदी विभागाध्यक्ष
उमेशचंद्र कॉलेज
13,सूर्य सेन स्ट्रीट
कोलकाता-700012
मोबाइल-09450181718

गुरुवार, 26 मार्च 2015

भारत में उच्च शिक्षा कि चुनौतिया



                                                    भारत में उच्च शिक्षा  की चुनौतिया        


विश्व स्तरीय शिक्षण संस्थानों के सर्वेक्षण में भारत के विश्वविद्यालय,विश्व के दो सौ विश्वविद्यालयों में से प्रथम बीस की सूची में भी नहीं हैं । क्यों? इस प्रश्न का हमारे पास कोई तार्किक जबाब नहीं हैं। अगर हम इस सवाल के कुछ प्रमुख कारणों को देखें तो स्थिति शायद समझ में आए। अगर हम भारत के चुनिन्दा आई. आई. टी. विश्वविद्यालयों को छोड़ दे जो अपनी योग्यताओं के कारण विश्व पटल पर अपनी छाप छोड़ रहे हैं ,लेकिन सुविधाओं के अभाव में इन संस्थानों के प्रतिभाशाली छात्र अपना देश छोड़ कर विदेशों में नौकरी के लिए जा रहे हैं।
अभी कुछ दिन पहले राज्यसभा मे पूछे गए एक सवाल के जबाब में सरकार के पास वही पुराना जबाब था कि देशभर के केन्द्रीय विश्वविद्यालय अध्यापकों की कमी से जूझ रहें हैं ।आप केवल अंदाजा लगाएँ देश के 39 केंद्रीय विश्वविद्यालयों मे शिक्षकों के चालीस फीसदी पद खाली हैं ,तो वहाँ शैक्षणिक गतिविधियों और उनकी गुणवत्ता की क्या स्थिति होगी। यह केवल केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थिति है अगर इसमें राज्य स्तरीय विश्वविद्यालयों को भी जोड़ दिया जाए तो तस्वीर बहुत भयावह होगी।
उच्च शिक्षा के गिरते स्तर को लेकर हमारे देश के राष्ट्रपति और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति प्रणव मुखर्जी भी     चिंतित हैं ,उन्होंने विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की बैठक बुलाई और अपनी चिंता जाहिर की। वास्तविक स्थिति को जानने के लिए वे खुद केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में भी गए। वहाँ के शिक्षकों और छात्रों से मिलें,यह एक बढ़िया कदम है । इसी क्रम में राष्ट्रपति जी ने एक विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में कहा कि-हमें एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना होगा जहां युवाओं को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप शिक्षा मिले । उन्होंने छात्रों में आत्मचेतना ,संवेदनशीलता ,मौलिक सोच विकसित करने और प्रभावशाली          संवाद ,समस्या समाधान व अंतर्वैयक्तिक संबंध की दक्षता बढ़ाने की जरूरत हैं ।” हमें भी अपनी ज़िम्मेदारी को निभाना होगा तभी उच्च शिक्षा की स्थिति बेहतर हो पाएगी । केवल शिक्षा के बजट को बढ़ाने भर से शिक्षा को बेहतर नहीं बनाया जा सकता ।इसके लिए जरूरी है कि उन बुनियादी कारणों की खोज की जाए और उन कारणों के समाधान का भी सार्थक प्रयास किया जाए । हमें जमीनी स्तर पर उच्च शिक्षा को शीर्ष पर पहुंचाने के लिए ईमानदारी से आगे आना पड़ेगा । विद्यालयी पढ़ाई करने वाले नौ छात्रों में से एक छात्र ही कॉलेज पहुँच पाता है । उच्च शिक्षा हेतु पंजीकरण कराने वालों का अनुपात हमारे यहाँ दुनिया में सबसे कम 11 % है, जबकि अमेरिका में यह 83 % है । इस अनुपात को 15 % तक ले जाने के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु भारत को 2,26,410 करोड़ रुपये का निवेश करना होगा, जबकि 11वीं योजना में इसके लिए केवल 77,933 करोड़ रुपये का ही प्रावधान किया      गया था  । उच्च शिक्षा की स्थिति बेहतर बनाने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने उच्च शिक्षा के स्तर को बढ़ाने के लिए कई सराहनीय कदम भी उठाए लेकिन दूरदर्शिता के अभाव में स्थिति वैसी की वैसी ही बनी रही । योजनाएँ बनाना और उनका पालन करवाना यू॰जी॰सी॰ और सरकार का काम हैं पर सरकार अपने दायित्व का निर्वाह करने में निरंतर  विफल साबित हुई विसंगति का एक नमूना देखें –तकनीकी पाठ्यक्रम की शुरुवात तो हो गयी लेकिन शिक्षकों की कमी तथा बुनियादी सुविधाओं के घोर अभाव में पाठ्यक्रम भी समय से पूरा नहीं हो पा रहा हैं। इस समस्या से केवल तकनीकी के ही पाठ्यक्रम नहीं बल्कि  मानविकी , विज्ञान के भी पाठ्यक्रम जूझ रहे हैं।
हमें इस तथ्य को भी याद रखना होगा कि विश्वविद्यालय केवल कुछ शैक्षणिक भवनों  का समूह भर नहीं होता हैं, बल्कि वह एक ऐसा केंद्र हैं जहां विचार और चेतना की सीमा को गहन शोध, प्रयोग और विवेचना द्वारा हमेशा विस्तार देने का प्रयास किया जाता हैं। किसी भी शिक्षण संस्थान के मुख्यत: तीन अंग होते हैं- शिक्षक ,शिक्षार्थी और गैर शैक्षणिक कर्मचारी । किसी भी संस्थान की सफलता और विफलता इन्हीं पर निर्भर होती हैं। हमें इन कड़ियों की भूमिका का निष्पक्ष मूल्यांकन करना होगा तभी शिक्षा व्यवस्था मे व्यापक बदलाव आ पाएंगा । सबसे पहले शिक्षको की भूमिका की बात करें,शिक्षक ज्ञान के विकास और प्रसार के माध्यम से समाज को बेहतर बनाने का सामाजिक अभिकर्ता होता हैं । समस्या यह है कि शिक्षक समुदाय अपनी सामूहिक जिम्मेदारी अथवा कर्तव्यपरायणतासे विमुख हो रहे हैं । इसका बड़ा कारण यह है कि अपने निर्धारित पेशे में अपेक्षित दक्षता प्राप्त करने पर भी उन्हें यह विश्वास नहीं रहता कि उनका हक उनकों मिलेगा । आज जिस तरह का माहौल हैं उसमे कोई भी अध्यापक केवल अध्ययन –अध्यापन और अनुसंधान में दक्षता के आधार पर पदोन्नति के प्रति आश्वस्त नहीं रह पाता, और पाया यह जाता है कि नाकाबिल और अयोग्य व्यक्ति केवल जी हुज़ूरी और चाटुकारिता आदि के दम पर पदोन्नति और महत्वपूर्ण पदों को  हासिल कर लेता हैं । इससे उच्च शिक्षा केन्द्रों में निराशा का माहौल उत्पन्न होता हैं । शिक्षण केन्द्रों पर मौजूद जड़ता और रचना विरोधी माहौल भी इस निराशा के लिए उतना ही जिम्मेदार हैं । शिक्षको को केवल ऊँची तनख्वाह पाने वाले अनुपयोगी वर्ग के रूप देखा जाने लगा हैं । हमें इस स्थिति को बदलना  होगा और इस अवांछित जड़ता को तोड़ना होगा तभी हम स्वस्थ शैक्षिक माहौल का निर्माण कर सकेंगे ।
विद्यार्थिर्यों की स्थिति और भी विकट हैं , लोकतान्त्रिक और समतावादी नारों के वावजूद प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा दुर्दशाग्रस्त है । सर्व शिक्षा अभियान और मिड-डे-मील की असफलता हम सभी के समक्ष हैं ।  सभी सरकारी और प्राईवेट स्कूल बच्चों के जेहन को कुंद कर रहें है साथ ही उनके भीतर मौजूद प्रश्नाकुलता को भी खत्म कर रहे हैं । इसी अधकचरी मनोदशा को ले कर वह उच्च शिक्षा में जाता हैं जहाँ प्रायः उसे यह भी नहीं मालूम रहता कि वह यह शिक्षा क्यों प्राप्त करना चाहता हैं । हमारी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में वह किसी तरह उत्तीर्ण हो जाता हैं । कुछ छात्र समुचित तैयारी के साथ आते हैं पर इस निराशा भरे परिवेश मे दम तोड़ देते हैं। यह निराशावादी माहौल उच्च शिक्षा केन्द्रों को विश्वस्तरीय स्थान दिलाने मे असफल हो रहा हैं और उच्च शिक्षा केवल अर्द्धशिक्षित बेरोजगारों की फौज खड़ी कर रही हैं ।
इन सब के अलावा सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है विश्वविद्यालय का व्यवस्था तंत्र जो शिक्षको और विद्यार्थियों के बीच की कड़ी हैं । इन्हें गैर शिक्षक कर्मचारी कहा जाता हैं ,ये एक तरह के नकारात्मकता के शिकार होते हैं जो इनकी कुंठा से जुड़ा हुआ हैं । गैर शैक्षणिक वर्ग के भीतर यह सोच काम करता हैं कि ये कही न कही से हीन हैं इसलिये इनका रवैया शिक्षण और शिक्षक विरोधी हो जाता हैं । शिक्षा केन्द्रों को शिथिल करने में इनकी प्रमुख भूमिका होती हैं । ऐसे माहौल मे हम मौलिक चिंतन और शोध की संभावना कैसे कर सकते हैं । ये शिक्षण संस्थानों की महत्वपूर्ण कड़ी हैं इसलिये इन्हें भी सकारात्मक भूमिका निभानी होगी ।
देश की शिक्षा व्यवस्था में और शिक्षा के प्रति दृष्टि में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्कता है, ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकारें और शिक्षा-विशेषज्ञ अपेक्षित शैक्षणिक सुधारों की दिशा में ठोस कदम उठायेंगे । हमें मौजूदा शिक्षा प्रणाली को बदलना होंगा और रोजगारपरक शिक्षा और तकनीकी शिक्षा पर विशेष ध्यान देना  होंगा  । नैसकॉम और मैकिन्से के ताज़ा शोध के मुताबिक मानविकी में 10 में एक और अभियंत्रण में डिग्री प्राप्त 4 में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं । राष्ट्रीय मूल्यांकन व प्रत्यायन परिषद् (नैक) का शोध बताता है कि इस देश के 90 फ़ीसदी कॉलेजों एवं 70 % विश्वविद्यालयों का स्तर बेहद कमज़ोर है । आज़ादी के पहले 50 सालों में 44 निजी संस्थानों को डीम्ड वि.वि. का दर्जा मिला । पिछले 16 वर्षों में 69 और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दी गयी । शिक्षा के वैश्वीकरण के इस दौर में महँगे कोचिंग संस्थान, किताबों की बढ़ती कीमत, डीम्ड वि.वि. और छात्रों में सिर्फ सरकारी नौकरी पाने की एक आम अवधारणा का पनपना आज की तारीख की अहम उच्च शैक्षिक चुनौतियाँ हैं ।अकबर इलाहाबादी ने इसी स्थिति को देखते हुए बहुत सटीक बात कही हैं -
                 
न पढ़ते तो खाते सौ तरह कमा कर / मारे गये हाय तालीम पाकर
                 न खेतों में रेहट चलाने के काबिल / न बाज़ार में माल ढोने के काबिल



डॉ॰ कमल कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी )
उमेशचन्द्र कॉलेज
13,सूर्य सेन स्ट्रीट ,कोलकाता-12  
mob. 09883778805 /09450181718

e.mail-kamal3684@gmail.com

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

LOKAYAT PRAKASHAN

                                                    भारत में उच्च शिक्षा  की चुनौतिया        
विश्व स्तरीय शिक्षण संस्थानों के सर्वेक्षण में भारत के विश्वविद्यालय,विश्व के दो सौ विश्वविद्यालयों में से प्रथम बीस की सूची में भी नहीं हैं । क्यों? इस प्रश्न का हमारे पास कोई तार्किक जबाब नहीं हैं। अगर हम इस सवाल के कुछ प्रमुख कारणों को देखें तो स्थिति शायद समझ में आए। अगर हम भारत के चुनिन्दा आई. आई. टी. विश्वविद्यालयों को छोड़ दे जो अपनी योग्यताओं के कारण विश्व पटल पर अपनी छाप छोड़ रहे हैं ,लेकिन सुविधाओं के अभाव में इन संस्थानों के प्रतिभाशाली छात्र अपना देश छोड़ कर विदेशों में नौकरी के लिए जा रहे हैं।
अभी कुछ दिन पहले राज्यसभा मे पूछे गए एक सवाल के जबाब में सरकार के पास वही पुराना जबाब था कि देशभर के केन्द्रीय विश्वविद्यालय अध्यापकों की कमी से जूझ रहें हैं ।आप केवल अंदाजा लगाएँ देश के 39 केंद्रीय विश्वविद्यालयों मे शिक्षकों के चालीस फीसदी पद खाली हैं ,तो वहाँ शैक्षणिक गतिविधियों और उनकी गुणवत्ता की क्या स्थिति होगी। यह केवल केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थिति है अगर इसमें राज्य स्तरीय विश्वविद्यालयों को भी जोड़ दिया जाए तो तस्वीर बहुत भयावह होगी।
उच्च शिक्षा के गिरते स्तर को लेकर हमारे देश के राष्ट्रपति और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति प्रणव मुखर्जी भी     चिंतित हैं ,उन्होंने विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की बैठक बुलाई और अपनी चिंता जाहिर की। वास्तविक स्थिति को जानने के लिए वे खुद केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में भी गए। वहाँ के शिक्षकों और छात्रों से मिलें,यह एक बढ़िया कदम है । इसी क्रम में राष्ट्रपति जी ने एक विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में कहा कि-हमें एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना होगा जहां युवाओं को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप शिक्षा मिले । उन्होंने छात्रों में आत्मचेतना ,संवेदनशीलता ,मौलिक सोच विकसित करने और प्रभावशाली          संवाद ,समस्या समाधान व अंतर्वैयक्तिक संबंध की दक्षता बढ़ाने की जरूरत हैं ।” हमें भी अपनी ज़िम्मेदारी को निभाना होगा तभी उच्च शिक्षा की स्थिति बेहतर हो पाएगी । केवल शिक्षा के बजट को बढ़ाने भर से शिक्षा को बेहतर नहीं बनाया जा सकता ।इसके लिए जरूरी है कि उन बुनियादी कारणों की खोज की जाए और उन कारणों के समाधान का भी सार्थक प्रयास किया जाए । हमें जमीनी स्तर पर उच्च शिक्षा को शीर्ष पर पहुंचाने के लिए ईमानदारी से आगे आना पड़ेगा । विद्यालयी पढ़ाई करने वाले नौ छात्रों में से एक छात्र ही कॉलेज पहुँच पाता है । उच्च शिक्षा हेतु पंजीकरण कराने वालों का अनुपात हमारे यहाँ दुनिया में सबसे कम 11 % है, जबकि अमेरिका में यह 83 % है । इस अनुपात को 15 % तक ले जाने के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु भारत को 2,26,410 करोड़ रुपये का निवेश करना होगा, जबकि 11वीं योजना में इसके लिए केवल 77,933 करोड़ रुपये का ही प्रावधान किया      गया था  । उच्च शिक्षा की स्थिति बेहतर बनाने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने उच्च शिक्षा के स्तर को बढ़ाने के लिए कई सराहनीय कदम भी उठाए लेकिन दूरदर्शिता के अभाव में स्थिति वैसी की वैसी ही बनी रही । योजनाएँ बनाना और उनका पालन करवाना यू॰जी॰सी॰ और सरकार का काम हैं पर सरकार अपने दायित्व का निर्वाह करने में निरंतर  विफल साबित हुई विसंगति का एक नमूना देखें –तकनीकी पाठ्यक्रम की शुरुवात तो हो गयी लेकिन शिक्षकों की कमी तथा बुनियादी सुविधाओं के घोर अभाव में पाठ्यक्रम भी समय से पूरा नहीं हो पा रहा हैं। इस समस्या से केवल तकनीकी के ही पाठ्यक्रम नहीं बल्कि  मानविकी , विज्ञान के भी पाठ्यक्रम जूझ रहे हैं।
हमें इस तथ्य को भी याद रखना होगा कि विश्वविद्यालय केवल कुछ शैक्षणिक भवनों  का समूह भर नहीं होता हैं, बल्कि वह एक ऐसा केंद्र हैं जहां विचार और चेतना की सीमा को गहन शोध, प्रयोग और विवेचना द्वारा हमेशा विस्तार देने का प्रयास किया जाता हैं। किसी भी शिक्षण संस्थान के मुख्यत: तीन अंग होते हैं- शिक्षक ,शिक्षार्थी और गैर शैक्षणिक कर्मचारी । किसी भी संस्थान की सफलता और विफलता इन्हीं पर निर्भर होती हैं। हमें इन कड़ियों की भूमिका का निष्पक्ष मूल्यांकन करना होगा तभी शिक्षा व्यवस्था मे व्यापक बदलाव आ पाएंगा । सबसे पहले शिक्षको की भूमिका की बात करें,शिक्षक ज्ञान के विकास और प्रसार के माध्यम से समाज को बेहतर बनाने का सामाजिक अभिकर्ता होता हैं । समस्या यह है कि शिक्षक समुदाय अपनी सामूहिक जिम्मेदारी अथवा कर्तव्यपरायणतासे विमुख हो रहे हैं । इसका बड़ा कारण यह है कि अपने निर्धारित पेशे में अपेक्षित दक्षता प्राप्त करने पर भी उन्हें यह विश्वास नहीं रहता कि उनका हक उनकों मिलेगा । आज जिस तरह का माहौल हैं उसमे कोई भी अध्यापक केवल अध्ययन –अध्यापन और अनुसंधान में दक्षता के आधार पर पदोन्नति के प्रति आश्वस्त नहीं रह पाता, और पाया यह जाता है कि नाकाबिल और अयोग्य व्यक्ति केवल जी हुज़ूरी और चाटुकारिता आदि के दम पर पदोन्नति और महत्वपूर्ण पदों को  हासिल कर लेता हैं । इससे उच्च शिक्षा केन्द्रों में निराशा का माहौल उत्पन्न होता हैं । शिक्षण केन्द्रों पर मौजूद जड़ता और रचना विरोधी माहौल भी इस निराशा के लिए उतना ही जिम्मेदार हैं । शिक्षको को केवल ऊँची तनख्वाह पाने वाले अनुपयोगी वर्ग के रूप देखा जाने लगा हैं । हमें इस स्थिति को बदलना  होगा और इस अवांछित जड़ता को तोड़ना होगा तभी हम स्वस्थ शैक्षिक माहौल का निर्माण कर सकेंगे ।
विद्यार्थिर्यों की स्थिति और भी विकट हैं , लोकतान्त्रिक और समतावादी नारों के वावजूद प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा दुर्दशाग्रस्त है । सर्व शिक्षा अभियान और मिड-डे-मील की असफलता हम सभी के समक्ष हैं ।  सभी सरकारी और प्राईवेट स्कूल बच्चों के जेहन को कुंद कर रहें है साथ ही उनके भीतर मौजूद प्रश्नाकुलता को भी खत्म कर रहे हैं । इसी अधकचरी मनोदशा को ले कर वह उच्च शिक्षा में जाता हैं जहाँ प्रायः उसे यह भी नहीं मालूम रहता कि वह यह शिक्षा क्यों प्राप्त करना चाहता हैं । हमारी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में वह किसी तरह उत्तीर्ण हो जाता हैं । कुछ छात्र समुचित तैयारी के साथ आते हैं पर इस निराशा भरे परिवेश मे दम तोड़ देते हैं। यह निराशावादी माहौल उच्च शिक्षा केन्द्रों को विश्वस्तरीय स्थान दिलाने मे असफल हो रहा हैं और उच्च शिक्षा केवल अर्द्धशिक्षित बेरोजगारों की फौज खड़ी कर रही हैं ।
इन सब के अलावा सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है विश्वविद्यालय का व्यवस्था तंत्र जो शिक्षको और विद्यार्थियों के बीच की कड़ी हैं । इन्हें गैर शिक्षक कर्मचारी कहा जाता हैं ,ये एक तरह के नकारात्मकता के शिकार होते हैं जो इनकी कुंठा से जुड़ा हुआ हैं । गैर शैक्षणिक वर्ग के भीतर यह सोच काम करता हैं कि ये कही न कही से हीन हैं इसलिये इनका रवैया शिक्षण और शिक्षक विरोधी हो जाता हैं । शिक्षा केन्द्रों को शिथिल करने में इनकी प्रमुख भूमिका होती हैं । ऐसे माहौल मे हम मौलिक चिंतन और शोध की संभावना कैसे कर सकते हैं । ये शिक्षण संस्थानों की महत्वपूर्ण कड़ी हैं इसलिये इन्हें भी सकारात्मक भूमिका निभानी होगी ।
देश की शिक्षा व्यवस्था में और शिक्षा के प्रति दृष्टि में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्कता है, ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकारें और शिक्षा-विशेषज्ञ अपेक्षित शैक्षणिक सुधारों की दिशा में ठोस कदम उठायेंगे । हमें मौजूदा शिक्षा प्रणाली को बदलना होंगा और रोजगारपरक शिक्षा और तकनीकी शिक्षा पर विशेष ध्यान देना  होंगा  । नैसकॉम और मैकिन्से के ताज़ा शोध के मुताबिक मानविकी में 10 में एक और अभियंत्रण में डिग्री प्राप्त 4 में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं । राष्ट्रीय मूल्यांकन व प्रत्यायन परिषद् (नैक) का शोध बताता है कि इस देश के 90 फ़ीसदी कॉलेजों एवं 70 % विश्वविद्यालयों का स्तर बेहद कमज़ोर है । आज़ादी के पहले 50 सालों में 44 निजी संस्थानों को डीम्ड वि.वि. का दर्जा मिला । पिछले 16 वर्षों में 69 और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दी गयी । शिक्षा के वैश्वीकरण के इस दौर में महँगे कोचिंग संस्थान, किताबों की बढ़ती कीमत, डीम्ड वि.वि. और छात्रों में सिर्फ सरकारी नौकरी पाने की एक आम अवधारणा का पनपना आज की तारीख की अहम उच्च शैक्षिक चुनौतियाँ हैं ।अकबर इलाहाबादी ने इसी स्थिति को देखते हुए बहुत सटीक बात कही हैं -
                 
न पढ़ते तो खाते सौ तरह कमा कर / मारे गये हाय तालीम पाकर
                 न खेतों में रेहट चलाने के काबिल / न बाज़ार में माल ढोने के काबिल



डॉ॰ कमल कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी )
उमेशचन्द्र कॉलेज
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